
असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक के रूप में हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार दशहरा 24 अक्टूबर को मनाया जा रहा है। इस दिन अस्त्र-शस्त्र का पूजन और रावण दहन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। लेकिन हिमाचल प्रदेश की वादियों में स्थित कुल्लू शहर में दशहरा मनाने का अंदाज अनूठा है। यहां रावण का पुतला नहीं बनाया जाता बल्कि इस दशहरा में शामिल होने के लिए देवलोक से देवी-देवता धरती पर आते हैं। इसे कुल्लू अंतरराष्ट्रीय दशहरा कहा जाता है।
हिमाचल का यह उत्सव दुनियाभर में मशहूर है. इसे देखने के लिए जगह-जगह से लोग हिमाचल पहुंचते हैं। सात दिन तक चलने वाले इस दशहरे की शुरुआत आश्विन मास की दशमी तिथि से होती है जो कि इस साल 24 अक्टूबर 2023 को है। जिस दिन देशभर में दशहरा का पर्व मनाया जाएगा, उसी दिन कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा मेला शुरू होता है जो 30 अक्टूबर को संपन्न होगा। जहां देशभर में दशहरे के दिन रावण दहन के साथ त्योहार मनाया जाता है। वहीं कुल्लू दशहरा में रावण दहन नहीं किया जाता बल्कि इस मेले में देवी-देवता का मिलन होता है।
मान्यता है कि कुल्लू दशहरे में देवलोक से देवी-देवता धरती पर आते हैं। कुल्लू की परंपरा के अनुसार इस कुल्लू दशहरे के मेले में भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा के साथ दशहरा शुरू होता है। इसके साथ ही सभी स्थानीय देवी-देवता ढोल-नगाड़ों की धुनों पर यहां आते हैं। हिमाचल के प्रत्येक गांव के एक अलग देवता होते हैं, जिन्हें इस मेले में शामिल होने के लिए रथों से लाया जाता है।
कुल्लू में विजयदशमी के पर्व मनाने की परंपरा वर्ष 1662 में राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है। दशहरा उत्सव का आयोजन ढालपुर मैदान में होता है। लकड़ी से बने आकर्षक और फूलों से सजे रथ में रघुनाथ की पावन सवारी को मोटी मोटी रस्सी से खींचकर दशहरे की शुरआत होती है। कु्ल्लू दशहरे में रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले नहीं जलाए जाते लेकिन लंका दहन जरूर होता है। इसमें भगवान रघुनाथ मैदान के निचले हिस्से में नदी किनारे बनाई लकड़ी की सांकेतिक लंका को जलाने जाते हैं। शाही परिवार की कुलदेवी होने के नाते देवी हिडिंबा भी यहां विराजमान रहती हैं। इस उत्सव में शामिल होने के लिए दुनियाभर के श्रद्धालु और पर्यटक शामिल होते हैं।